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करता हूँ आक्रमण धर्म के दृढ़ दुर्गों पर,
कवि हूँ, नया मनुष्य मुझे यदि अपनाएगा
उन गानों में अपने विजय-गान पाएगा
जिन को मैंने गाया है। वैसे मुर्गों पर
निर्भर नहीं सवेरा होना, लेकिन इतना
झूठ नहीं है, जहाँ कहीं वह बड़े सवेरे
ऊँचे स्वर से बोला करता है, मुँह फेरे
कोई पड़ा नहीं रह सकता है फिर कितना
उस में बल है। निर्मल स्वर की धारा
उस की अपनी है, जिस की अजस्र कल-कल में
स्वप्न डूब जाते हैं जीवन के लघु पल में -
तम से लड़ता है इस पश्यंती के द्वारा।
धर्म-विनिर्मित अंधकार से लड़ते लड़ते
आगामी मनुष्य, तुम तक मेरे स्वर बढ़ते।
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